Monday, June 28, 2010



I am Brij  Nath  Srivastava
रथ इधर मोड़िये मेरी

यह वही गॉव है

यह वही गॉव है जिसमें हम बडे हुये थे
                   अपने पैरों पर खडे हुये थे
 हवा गॉव की
रोटी और नदी का जल
सभी दिशायें
गाती उत्सव में मंगल


सबके मुख पीयूश नेह के घडे हुये थे
                     अपने पैरों खडे हुये थे
पश्चिम आया
पूरा बदल गया इंसान
शहरों ने गांवों
का तोड दिया सम्मान




एक डर

एक डर
पसरा हुआ है
हर जगह
कहाँ बैठें
कहाँ लेटें
कहाँ खोयें
कहाँ सोयें


नेह पथ
सँकरा हुआ है
हर जगह
हो खेत या
खलियान हो
जन भीड या
शमशान हो
आचरण
नखरा हुआ है

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